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ये उसकी आशिकी है या मेरा पागलपन…..
जो उसके ना होकर भी उसके होने का अहसास..
कराती है…
बस ये पंक्तियाँ ही लिखा था मैंने की माँ ने आवाज़ लगाई “सोना” कहाँ है,,कर क्या रही है..इतने देर से तेरा इंतज़ार कर रही हुँ,,आजा खाने के लिए…
चहरे पर मुस्कुराहट के साथ मैं माँ के पास पहुँच गई…खाना ही शुरू किया था की माँ ने कहाँ “सोना” क्या छुपा रही आज बहुत खुश है….मुझे भी तो बता…
उस वक़्त तो बस ऐसा लगा आज तो मैं पकड़ी गई…सारी सच्चाई ना सामने आ जाये उससे पहले ही मैंने एक लम्बी सी सांस ली फिर कहाँ अरे नहीं – नहीं माँ ऐसी कोई बात नहीं है…कुछ पंक्तियाँ लिखा था मैंने,उनके बारे में ही सोच कर ख़ुशी का अहसास हो रहा था मुझे…
माँ इससे पहले कुछ बोल पाती, उससे पहले ही मैंने बात को घुमाते हुए बात पलटने की कोशिश की और कहाँ माँ आज आपने खाना बहुत अच्छा बनाया है…हॉस्टल में मैं इंतज़ार ही करती रहती थी कब माँ के हाथ का खाना मिलेगा…उस दिन तो मैं किसी तरह बच गई…
लेकिन एक बात थी जो मुझे सता रही थी और वो थी की क्या मैंने माँ को सच्चाई ना बता कर सही किया या नहीं…तभी मैंने निर्णय लिया की ‘माँ को तो बात बता कर ही रहूँगी”..
हर रोज़ की तरह ख़ुशी-ख़ुशी दिन बीतता चला जा रहा था..मैं अपनी फैमिली (माँ- पिता जी भाई,बहन,ताई-ताऊ जी) सब के साथ अपनी गर्मी की छुटियाँ बिताने में मसगुल थी..
मैं बचपन से ही एक संयुक्त (joint) फैमिली में रहती थी..जिसमें हर कोई अपनी बड़ी सी बड़ी और छोटी सी छोटी बाते एक दूसरे से शेयर करते थे…जैसे किसी की मेहमान नवाजी कैसे करनी है,किसी की शादी की बात, पार्टी में जाने की बात,,स्कूल, कॉलेज, नौकरी इत्यादि..इस तरह की छोटी सी छोटी बाते तक शेयर किये जाते थे…
इसी फैमिली की, मैं भी एक हिस्सा थी जिसे अपने किसी भी काम करने की आजादी ना थी..चाहे वो खाने की बात हो, कहीं घूमने की, किसी से फ्रेंडशिप करने की बात हो,,या पढने की..
हर वक़्त कोई भी बात-विचार पुरे फैमिली के मुताबिक होती थी..चाहे आपकी इच्छा हो या नहीं….
बहुत सोचते समझते हुए मैंने अपनी दिल की बात माँ को बातों बातों में बताया….मुझे उम्मीद थी की माँ ही मुझे समझ सकती हैं….
मैंने कहाँ माँ-” आप जानती हैं ना की जब किसी की आदत और विचारो की जगह किसी के दिल में बन जाती हैं तो आपकी सूरत माइने नहीं रखती” आपने ही बचपन से सिखाया हैं ना की शक्ल से नहीं शिरत से लोगो को प्यार करना चाहिए..शक्ल खुद अच्छी लगने लगती हैं…
मैं भी एक लड़के को पसंद करती हुँ और वो भी मुझे पसंद करता हैं…उसने मुझे हर वक़्त साथ दिया चाहे वो कैसे सी स्तिथि हो बुरी या अच्छी…
माँ आप तो मेरी हर हालत से वाकिफ हैं जिस वक़्त मैं मरने और जीने के कगार पर थी तो इसने ही मुझे जीने की प्रेरणा दी…
“उसने ही मुझे कहाँ की दुनिया बहुत ही बड़ी हैं हर रोज किसी ना किसी के साथ दुर्व्यवहार,,दुरुपयोग, अत्याचार,छेड़-छाड़…होती हैं…बस खुद का ख्याल सिर्फ तुम खुद ही रख सकते हो…हमेशा हर परिस्थिति में खुद से हार मत मानों,,अपने दुःख को दुसरो के दुःख के सामने बहुत ही छोटा समझों” तो ज़िन्दगी बहुत ही हसीन बन जाएगी….
इतना ही कहते हुए माँ से मैं लिपट गई…”ना तो मैं अपनी ख़ुशी का इज़हार कर पा रही थी ना ही दुखी होने का अहसास”…
बस मुझे एक बात का अहसास हो रहा था की माँ चाह कर भी बेबस थी…वो मुझे हमेशा खुश देखना चाहती थी और मैं माँ को….
माँ की परिस्थिति सिर्फ मैं समझ सकती थी और माँ मेरी…लेकिन मैं नहीं चाहती थी की माँ की इज़्ज़त जो फैमिली में हैं वो कम हो…
उस वक़्त बस मैंने फैसला लिया की मैं इस बात को आगे बढ़ने ही नहीं दूँगी…माँ की इज़्ज़त से बढ़ कर कुछ भी नहीं….
उस दिन के बाद से सब कुछ बंद मैंने अपनी लाइफ से सब कुछ मिटा दिया…
लेकिन माँ तो माँ ही होती हैं ना…
माँ ने भी कोशिश की सबको मनाने की लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ इस रिश्ते को आगे बढ़ने के लिए..फैमिली वाले अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए मेरी शादी फिक्स कर दी… पिता जी और फैमिली वाले मेरी शादी की तैयारी करने में डूब गए…सब लोग खुश थे मैं भी सबको खुश रखने में लगी हुई थी…
सब कुछ भूल कर मैं अपनी नई ज़िन्दगी के सफर का इंतज़ार करने में लगी हुई थी….बस तभी माँ ने मुझसे एक बात पूछ डाली सोना, ” तू खुश हैं ना” लड़का बहुत अच्छा हैं तुझे बहुत खुश रखेगा…..और “बस मैंने मुश्कुरा कर कहाँ”
“किसी की आदत और मोहब्बत..
किसी अच्छे इन्सान को ‘बेबस और बुरा’
और किसी बुरे इंसान को ‘किसी के काबिल और अच्छा’ बना सकता हैं”
बिछड़ना और मिलाना तो सिक्के के दो पहलु हैं…जो ज़िन्दगी जीने के मायने बताते हैं…
so enjoy the life for your lovable ones..n your family..
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