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आज सुबह की किरणे कुछ ज्यादा ही चमक रहीं थी…मेरी स्टडी ख़त्म होने का जो आखिरी दिन था…२ साल के कड़ी मेहनत और भागा – दौड़ी वाले सफर के साथ आज मैं पोस्ट ग्रेजुएट होने वाली थी…कॉलेज के सारे झंझट-झमेले वाले डॉक्युमेंट्री से भरे काम को खत्म करते हुए हॉस्टल छोड़, मुझे घर भी जाना था…मेरी जो आज की ही ट्रैन थी…
आज बहुत खुश थी मैं…जल्दी जल्दी सारे काम को ख़त्म करने में लगी थी अंत में बस मेरी ट्रैन को आने में २ घंटे बच गए थे…सबसे मिलजुलकर फिर मिलने की इच्छा जताते हुए निकल पड़ी स्टेशन…ठीक एक घंटे के अंदर में स्टेशन भी पहुंच गई शायद आज सूर्य देव मुझपर ज्यादा ही मेहरवान थे जिस कारण गर्मी से सड़के सुनसान पड़ी हुई थी… और स्टेशन पहुंचने के लिए मुझे १.५ घंटे के सिवा ४५ मिनट ही ऑटो का सफर करना पड़ा…बचे हुए समय को मैंने ट्रैन की जानकारी लेने में..प्लेटफार्म तक पहुंचने में…आस – पास के नोक झोक,हसी मजाक, बच्चों की फरमाईशें..देखते हुए बीता दिए…
देखते ही देखते बस १० मिनट के अंदर मेरी ट्रैन भी आ गई…आस-पास शोर- शराबा होने लगा..लोग अपने-अपने सामान लेकर ट्रैन की ओर चल पड़े अपने शीट की तलाश में…सबकी तरह मैं भी उस भीड़ में शामिल थी…शायद गर्मी की वजह से सब लोग अपनी जगह पर जल्दी पहुंचना चाहते थे….खुद को शम्भालते अपने सामान को उठाते-रखते पहुंच गई अपने शीट के पास…
देखा तो मेरे अनुमान के हिसाब से वहां कोई और बैठा था…मुझे लगा कही मैंने गलत शीट नंबर तो नहीं देख लिया….बिना कुछ सुलह किये थकी हारी मैं चुप – चाप उस वक़्त अपने अनुमानित शीट के बगल वाले शीट पर जा बैठी…१० से १५ मिनट ही बीते थे की मैंने खिड़की वाले शीट के बारे में अपने बगल वाले लड़के से पुछं ही डाला….शीट नंबर-७७ मुझे उस तरफ जाना हैं…बिना झिक-झिक किये और करता भी क्यों वो तो मेरी शीट थी..बस उस लड़के ने कहाँ आप आजाओ इधर. शायद शरीफ था, इसलिए तो बेवजह बात का बतंगड़ नहीं किया…
करीब-करीब सब लोग अपनी-अपनी शीट पर आ चुके थे..अब तो ट्रैन भी खुलने ही वाली थी…ट्रैन खुली और देखते ही देखते प्लेटफार्म पुरी तरह से खाली हो चुका था..गिने चुने २ से ३ लोग ही दिख रहे थे…सभी यात्री अपने अपने घर वालो को कॉल करके बताने लगे बस ट्रैन खुल गई हम जल्दी ही मिलते है….वैसे ही मैंने भी माँ और बाबू जी को कॉल करके बताया मैं ठीक हुँ, शीट मिल गई, आस – पास का माहौल भी ठीक है…जल्दी ही मिलते हैं…(नमस्ते)…
धीरे -धीरे ट्रैन ने भी रफ़्तार पकड़ ली थी…सफर के साथ उस दिन मौसम भी बदल रहा था कहीं बादल के साथ ठंडी हवा तो कहीं चिलचिलि धुप…देखते ही देखते मन में हजारो सवाल (जाने कैसा लड़का हैं , अपने सामान की सुरक्षा के बारे में) सोचते हुए न जाने कब मेरी आँख लग गई… उस दिन मैं इतनी थक गई थी की चिलचिलि धुप में भी आँख लग गई…अहसास होता हैं की उस दिन मैं खुद को अपने दुप्पटे से छुपाते हुए शुकुन लेने की कोशिश में थी…तभी अजीब सी छाये की महसूस हुई,,हिम्मत करके आँखे खोली तो देखी की मेरी पास की खिड़की के पर्दे को किसी ने निचे कर दिया था…
अचानक से मेरी होश खुली मैंने खुद को देखा,चारो ओर देखते हुए उस लड़के को भी घुरा..लेकिन वो तो खुद एक ओर होकर अपने मोबाइल में व्यस्त था…
ट्रैन करीब अपनी आधी सफर पूरी कर चुकी थी..मुझे भूख सी महसूस होने लगी थी,,मैंने अपने बैग से कुछ खाने के सामन निकाले..जिसमे बिस्किट्स,मिठाइयां,और नमकीन थी…उस वक़्त मुझे अकेले खाना अच्छा सा नहीं लगा…तभी मैंने अपने बगल वाले लड़के की ओर मिठाइयां और बिस्कुइट्स बढ़ाते हुए हेलो कहा- अपना परिचय देते हुए उसने अपना नाम निखिल बताया और एक बिस्किट्स ली…
धीरे-धीरे हम अपने सफर के काफी करीब आते जा रहे थे..अचानक से न जाने कैसे ट्रैन एक सुनसान जगह पर रुक गई जहाँ आस-पास कुछ भी नहीं था..न स्टेशन, न लोग ,न ही कोई खाने का दुकान,न ही पानी- पीने का दुकान…
गर्मी और खाना के बगैर लोग बहुत ही बेहाल और बेबश हो चुके थे..जो ट्रैन अब तक एक दम सही समय से चल रही थी अब वो २ घण्टे लेट हो चुकी थी..लोगो का धैर्य धीरे-धीरे कम होता जा रहा था..जहाँ मैं खुद का समय गाने सुनकर..जगह जगह के नज़ारे देख कर बीता रही थी वही अब ट्रैन रुकने के बाद बच्चों की चीखे, उनका रोना,लोगो के परेशान चेहरे को देख कर बीताना पड़ रहा था..
खुद को इस परिस्तिथि से दूर रखने के लिए,,खुद का ऊबन और गुस्सा दूर करने के लिए मैंने निखिल..वही मेरे पास वाला लड़का उससे बाते करनी शुरू कर दी..और न जाने बाते करते- करते ट्रैन कब खुल गई हमे पता भी न चला…उस १० घंटे के सफर में हम एक दूसरे को काफी तो नहीं लेकिन इतना जान गए थे, की हम एक ही जगह से थे..अब मुझे फ़िक्र सी होने लगी थी की कहीं ये मेरे दूर के परिवार का सदस्य तो नहीं हैं…फिर भी जो भी हो मुझे फर्क नहीं पड़ता..ये सोचते हुए मैंने बातों को टाल दिया..
धीरे -धीरे मैं निखिल के बारे में इतना तो जान ही गई थी की वो एक अच्छे परिवार का लड़का हैं…जब उसने बिना सोचे समझे,लोगो की फ़िक्र किये बगैर मेरी मदद की जब मेरी तबियत गर्मी से बिगड़ने लगी थी…जब अचानक से मुझे सर दर्द और वमन(उलटी) सा महसूस हुआ तो..उसने मुझे दवाइया दी,,और अपने कंधे के सहारे मुझे सुलाया….
अब तक तो आस – पास के लोग जो दुबिधा भरे नजर से हमें देख रहे थे वो भी हमें एक ही परिवार के सोचने लगे थे..जब निखिल ने एक अजनबी होकर अपनापन का अहसास कराया…ना जाने कैसा अहसास था ये जो मुझे सोचने को मजबूर कर रहा था…काश ये सफर यही रुक जाये…
इन्ही खयालो के साथ निखिल के कंधे पर मैंने सर रखकर अपनी आँखे बंद कर रखी थी..तभी उसने मजाक करते हुए कहा- उठ जाइए आप मिस ….मैंने भी बिना हिचकिचाए उसे कहा- निकिता…हाँ- हाँ निकिता तो अब ट्रैन का सफर सही और हमारा सफर खत्म होने होने वाला हैं..हम बस ५ मिनट साथ रहने वाले हैं…
निखिल की इस बातो पर न जाने क्यों मुझे बुरा सा महसूस हुआ. ऐसा लगा इस समय को मैं फिर से १० घंटे पीछे कर दूँ…जब वो अपनी बैग लेकर शीट से बाहर उतरने लगा…फिर भी अपनी ज़िद पर अड़ी उस वक़्त भी मैं अपने दिमाग को दिल से जीत दिलाने की कोशिश में थी शायद इसलिए मैंने निखिल को रोकना भी सही नहीं समझा बतशर्ते..उसके आखिरी सवाल की “आप ठीक हो ना” पूछने पर भी मैंने यही कहा मेरी फैमिली मुझे लेने आ रही हैं…
फिर तो ना ही उसने पीछे पलट कर देखा और ना ही मैंने आगे बढ़ने की कोशिश की…ना जाने कब निखिल और निकिता “एक अजनबी सफर में तुम से हम” बन गए पता ही ना चला…
ज़रूरी तो नहीं की हर रास्ता जाना पहचाना हो..
जरुरी तो नहीं की हर कोई अंजना हो…
जानते तो हम खुदा को भी है ..
फिर क्यों उनका हर एक फैसला अंजाना है ..
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